संकल्पनाएँ, विचार, अवधियाँ
भारतवर्ष उत्तर भारत में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक विस्तृत भारतीय उपमहाद्वीप को आरतवर्ष के नाम से जाना जाता है। इसे भारत की भूमि पा भारत का देश भी कहा जाता है। वैदिक काल में आर्यों का यह अंतिम विस्तार था। यह नामकरण ऋग्वैदिक काल के प्रमुख जन 'भरत' के नाम पर पड़ा। कुछ लोग इसे जिम्बूद्वीप का एक भाग मानते हैं। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार, ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में जहाँ महान मौर्य वंश का शासन था, उसी भू-भाग को जम्बू द्वीप कहा गया है।
(सभा-समिति? वैदिक काल की ये दोनों महत्वपूर्ण राजनीतिक संस्थाएँ थीं, जो राजा की निरंकुशता पर अंकुश रखती थीं। सभा श्रेष्ठ एवं संभ्रांत लोगों की संस्था थी. इसमें रिवाँ भी भाग लेती थी। समिति एक आम जनों को संस्था थी। यह सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी।
वर्णाश्रम- वैदिक काल में स्थापित चार वर्णों ब्राह्मण क्षत्रियों वैश्य तथा शह को सम्मिलित रूप से कहा जाता है। इसका आरंभिक उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में है। इन चारों वर्षों के अलग-अलग कर्म निर्धारित थे। पुरुषार्थ इसको चर्चा प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में की गई है।
पुरुषार्थ का उद्देश्य भौतिक व आध्यात्मिक सुखों में तालमेल स्थापित कर मोक्ष प्राप्त करना है। पुरुषार्थ चार हैं धर्म, अर्थ काम
ऋषा प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार ऋण से छुटकारा पाकर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। ये ऋण तीन थे पितृ
ऋण ऋषि ऋण तथा देव ऋण। [संस्कार स्मृति ग्रंथों में 16 संस्कारों का उल्लेख है-गर्भाधान,
पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्रासन, चूड़ाकर्म, कर्णभेद, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, कंशांत, समावर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। ये अनुष्ठान ब्राह्मण, क्षेत्री और वैश्यों के लिए थे। इनमें से तीन दीक्षाएँ जन्म से पहले की गई थीं।
यज्ञ- विदिक काल में यज्ञों का अत्यधिक महत्व था। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए इनका अनुष्ठान किया जाता था। उत्तर वैदिक काल में यज्ञों में पशुबलि की प्रधानता हो गई। यज्ञ दो प्रकार के थे एक शासक वर्ग द्वारा किये जाने वाले अश्वमेध राजसूये) वाजपेयो इत्यादि तथा दूसरे गृहस्यों द्वारा किए जाने वाले। गृहस्यों को पाँच महायज्ञों
ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्ययज्ञ तथा भूत यज्ञ करना पड़ता था। किर्मा का उत्तर-वैदिक काल और उसके बाद का सिद्धांत
धार्मिक ग्रंथों ने आम जनता को भाग्यवादी बना दिया था। ऐसी मान्यता स्थापित हो गई थी कि जो भी होगा, वह भाग्य के सहारे ही होगा। इस कारण समाज में शिथिलता आ गई थी। इसे दूर करने के लिए उपनिषदों तथा महाभारत के भीष्म पर्व में कर्म के सिद्धान्त की स्थापना की गई। बुद्ध के अनुसार आगामी जीवन में मानव की स्थिति उसके अपने कर्म पर निर्भर है।
[दण्डनीति/अर्थशास्त्र) चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधान सलाहकार कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की रचना की। इस ग्रंथ में तत्कालीन सजव्यवस्था (कानूनी (दण्डनीति) तथा (अर्थव्यवस्थों की व्याख्या
की गई है। शासक को किस प्रकार शासन करना चाहिए तथा राजा एवं प्रजा के कैसे संबंध होने चाहिए, इसकी विशद् व्याख्या अर्थशास्त्र में की गई है। अर्थशास्त्र 18 भागों या अधिकरणों में विभक्त है।
7 सप्तांग राज्य के लिए सप्तांग सिद्धांत की आवश्यकता पर कौटिल्य ने बल दिया तथा सर्वप्रथम सप्तांग सिद्धांत की व्याख्या की। ये सिद्धांत थे (राजा) क्षमात्य जनपद दुर्ग कोष दण्ड एवं मित्रा ये राज्य के लिए आवश्यक तत्व थे।
धर्म विजय/धम्म विजय समुद्रगुप्त की दक्षिणा पथ
विजय को राय चौधरी ने धर्म विजय की संज्ञा दी है। कलिंग युद्ध में पश्चात् शोकाकूल मौर्य सम्राट ने युद्ध की रणनीति छोड़ दीं वह बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुआ तथा धम्म की व्याख्या दी। अशोक के लिए धम्म एक जीवन की पद्धति था। यह धम्म घोर
सामाजिक नैतिकता तथा नागरिक उत्तरदायित्व की भावना पर
आधारित था। वह धम्म का अधिक से अधिक विस्तार करना चाहता था तथा इसी द्वारा प्रजा को अपनी ओर आकृष्ट करना चाहता था। युद्ध नीति का त्याग कर उसने धम्म विजय की नीति अपनाई।
स्तूप/चैत्य स्तूप का शाब्दिक अर्थ है- किसी वस्तु का ढेर। इसका विकास मिट्टी के ऐसे चबूतरे से हुआ, जिसका निर्माण मृतक की चिता के ऊपर या अस्थियों के रखने के लिए किया जाता था। बाद में बुद्ध को अस्थियों के ऊपर स्तूप का निर्माण किया गया। स्तूप अर्द्धगोलाकार होते थे। जिन स्तूपों को पूजा के लिए प्रयोग में लाया जाता था, उसे चैत्य कहा जाता था।
नागर/द्रविड्/वेसर ये स्थापत्य की शैलियाँ हैं। भारत में इन्हीं शैलियों में मंदिरों का निर्माण हुआ। नागर शैली उत्तर भारत में प्रचलित थी। इसका विस्तार हिमालय से विन्ध्य तक था
का लिंगराज मन्दिर इस शैली का उत्कृष्ट उगाहरण है। कृष्णा नाही से कन्याकुमारी तक इविह शैली का विस्तार था। बेसर शैली विंध्य से कृष्णा नदी तक विस्तृत थी। इस शैली का उद्धव नागर तथा द्रविड के मिश्रण से हुआ। नागर शैली के मंदिर चतुष्कोणीय, द्रविड़ शैली के अष्टभुजाकार तथा बेसर शैली के अर्द्धगोलाकार हैं। (बोधिसत्व/तीर्थंकर बोधिसत्व की परिकल्पना महायान बौद्ध धर्म में है। कोई भी व्यक्ति जो बोधिचित्त का विकास कर रहा है, बोधिसत्व होता है। सबसे प्रतिष्ठित बोधिसत्व को देवता माना जाता है, जिनकी पूजा की जाती है। अवलोकितेश्वर सबसे प्रसिद्ध बोधिसत्व हैं।
महावीर से पूर्व जितने भी इस धर्म के प्रचारक हुए वे तीर्थकर कहलाए। महावीर से पूर्व ऋषभदेव से लेकर पाश्र्वनाथ तक तीर्थकर हुए। महावीर को भी 24वाँ तीर्थकर कहा गया है। अलवार/नयनार दक्षिण भारत में धार्मिक आंदोलन में
23 संतों को अलवार कहा जाता था, जिनकी संख्या थी। दक्षिण भारत के शैव संतों सेको नयनार कहा जाता था, जिनको सख्या 63 थी। [श्रेणी- मौर्योत्तर काल में अनेक प्रकार के व्यवसाय अलग-अलग श्रेणियों में बँटे थे। प्रत्येक व्यवसाय की अलग श्रेणी होती थी। व्यवसायी श्रेणी की सदस्यता ग्रहण कर स्वयं को अधिक सुरक्षित महसूस करते थे। इस प्रकार श्रेणी एक प्रकार की संस्था 6
थी। जातक ग्रंथों में 18 प्रकार को श्रेणियों का उल्लेख मिलता है। का प्रमुख ज्येष्ठक कहलाता था।
वस्तुओं को खरीद-बिक्री या मुनाफे पर कुछ प्रतिशत राज्य को कर देना पड़ता था। जो लोग करों का भुगतान नहीं करते थे उनसे तथा शिल्पियों एवं कारीगरों से प्रत्येक माह में एक एक दिन राज्य के लिए निःशुल्क कार्य करना पड़ता था, जिसे विष्टि या बेगारी कहा जाता था।
स्त्रीधन स्वीधन स्त्री की निजी संपत्ति होती थी, जिसे वह दहेज या उपहार में प्राप्त करती थी। इसमें बहुमूल्य वस्त्र, जेवर आदि आते थे। मनुस्मृति के अनुसार, 'कन्यादान के समय अग्नि के समक्ष एवं विदाई के अवसर पर कन्या के माता-पिता परिवारजन एवं सम्बन्धियों द्वारा आभूषण, धन आदि दिया जाता था, वह स्त्रीधन है।"
स्मारक प्रस्तर प्राचीन काल में राज्यादेशों या अभिलेखों को पत्थर पर खुदवाया जाता था, जिसे स्मारक प्रस्तर कहा जाता है।
इस प्रकार का सर्वाधिक प्राचीन स्मारक मध्य एशिया के बोगजकोई से मिला है जो 1400 ई.पू. का है। भारत में सबसे प्राचीन अभिलेख
अशोक के हैं जो 300 ई.पू. के हैं।
अिग्रहार यह एक प्रकार की भूमि थी जो ब्राह्मणों को दी जाती ठी
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